शनिवार, 26 जून 2010

किसी टीआरपी का हिस्सा नहीं है मेरा गांव

देश के 100 सबसे पिछड़े जिलों में से एक महाराजगंज (यूपी) के सबसे पिछड़े इलाकों में है मेरा गांव, धानी बाजार। वास्तव में यह एक गांव नहीं बल्कि छोटा सा बाजार है, ब्लॉक मुख्यालय है। पिछले दस साल में जबसे मैं दिल्ली आया हूं, मेरे गांव में परिवर्तन और विकास बहुत से तेजी से हो रहा है। हम बचपन में जो सपने देखते थे, वे सब लगभग पूर हो गए हैं या उन पर काम चल रहा है। राप्ती नदी पर पक्का पुल बन रहा है, बिजली का सब स्टेशन बन रहा है, 30 बेड का हॉस्पिटल बन रहा है। गांव की गली-गली आरसीसी की सड़क में तब्दील हो चुकी है। वैसे तो इस बार गांव छोटे भाई की शादी में शरीक होने होने के लिए गया था, पर इस व्यस्त कार्यक्रम के बीच भी गांव मंे होने वाले तेज changes की झलक दिख ही गई। मेरा गांव संचार क्रांति का हिस्सा बन चुका है, घर-घर मंे मोबाइल फोन है, इंटरनेट कैफे खुल चुके हैं। इध्र एक नई क्रांति जो दिख रही है वह है डीटीएच की। घर-घर जिस तरह से डीटीएच की छतरियां दिख रही थीं उससे मुझे लगता है कि कम से कम 100 घरों में तो डीटीएच कनेक्शन लगा ही होगा। यही नहीं कई संयुक्त परिवारों के यहां तो एक ही घर में 3-4 डीटीएच छतरी दिख रही है (ऐसा ही एक घर तस्वीर में दिख रहा है)। पर खबरिया या मनोरंजन चैनलों के लिए जो टीआरपी तय की जाती है उसमें मेरे गांव के लोग कहीं नहीं हैं। हां, यह डीटीएच कंपनियां के लिए अध्ययन का विषय जरूर हो सकता है। इस छोटे से कस्बे नुमा गांव में टीवी के अलावा मनोरंजन का कोई और साधन नहीं है, इसलिए इस गांव के लोग महीने में डीटीएच का दो-तीन सौ रपया खर्च करने को तैयार हैं। गांव के इन घरों में दोपहिया, चारपहिया वाहन, टीवी, मोबाइल, कूलर, डीवीडी, इनवर्टर तेजी से अपनी जगह बना रहे हैं। ग्रामीण बाजार में पैठ बनाने की कोशिश कर रही उपभोक्ता कंपनियों को मेरे गांव का अध्ययन जरूर करना चाहिए।


 
बैंकिंग के लिए चक्का जाम

ऐसा भारतीय स्टेट बैंक के इतिहास में शायद ही कभी हुआ हो या हुआ भी होगा तो ऐसे कुछ ही उदाहरण होंगे। गांव रहने के दौरान मुझे खबर मिली कि भारतीय स्टेट बैंक के सामने जनता रोड पर चक्का जाम कर रही है। यह चक्का जाम इस वजह से कि भारतीय स्टेट बैंक पर इतनी भीड़ हो गई है और धन की निकासी इतना ज्यादा हो रही है कि बैंक लोगों को पैसा देने में असमर्थ हो गया है। लग्न के महीने में जब शादी आदि की जरूरतों के लिए लोगों को पैसा निकालना बहुत जरूरी होता है तो पैसा न मिलना उनके लिए बहुत बड़ी बात है। बैैंक मैनेजर ने प्रति दिन कुछ करोड़ की जो लिमिट अपनी शाखा के लिए ऊपर बताई थी वह पैसा दोपहर तक ही खत्म हो जाता था। लग्न की वजह से पैसा जमा करने वाले नहीं बल्कि निकालने वाले ही ज्यादा आते थे। यह सब देख मैनेजर के हाथपांव फूल गए, प्रशासन और बैंक के उच्च अधिकारियों ने मिलकर समस्या को दूर करने का आश्वासन दिया और चक्का जाम हटाया गया। बैंक अधिकारियों का कहना था कि मनरेगा की वजह से उनकी मुश्किलें और बढ़ गई हैं। मनरेगा योजना के मजदूरों को हर दिन बैंक से मजदूरी का भुगतान करना पड़ता है जिसकी वजह से भारी भीड़ हो जाती है।

मेरे गांव में सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक की ही शाखा है। एक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक भी है। ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के निवेश का बड़ा हिस्सा बैंकों में ही जाता है। पता नहीं कोई और बैंक वहां अपनी शाखा खोलने का विचार क्यों नहीं करता।

 मनरेगा से नाराज



मनरेगा से जहां गांव के कई भूमिहीन परिवारों में खुशहाली आई है। वहीं बहुत से लोग जो मजदूरी नहीं बल्कि अपनी खेती या कोई और काम करते हैं वे इससे नाराज हैं। तस्वीर में दिख रहे ऐसे ही मेरे गांव के कुछ नागरिक जैसे लाला, रामवृक्ष, राम बेलास इस योजना से काफी खफा हैं। उनका कहना है कि इसमें सरकारी संसाधनों की बर्बादी हो रही है। वास्तव में अब बहुत से गांवों में इतना काम नहीं बचा है कि मजदूरों को 100 दिन का रोजगार दिया जाए, इसलिए काम की खानापूर्ति ज्यादा हो रही है। जो बांध पिछले साल बनाया गया था उसे इस साल बिना जरूरत के फिर से बनाया जा रहा है। पिछले साल जहां पोखरा खोदा गया था, इस साल उसकी फिर से खुदाई हो रही है। ग्राम प्रधान परेशान हैं कि आखिर काम कहां कराया जाए। सरकारी काम समझ कर मजदूर काम कम आराम ज्यादा करते हैं। इन सब कमियों के बावजूद इस योजना से कई भूमिहीन परिवारों को राहत जरूर मिली है। अब कम से कम वे दो जून अपना पेट तो भर ही सकते हैं।