शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

दिल्ली में जानवर रहते हैं!

यूपी में दो हफ्ते से ज्यादा रहा और इसमें से करीब दस दिन अपने गांव धानी बाजार, महराजगंज में रहा. इस दौरान गांव की धीमी, सुकून भरी जिंदगी के पूरे मजे लेने की कोशिश करता रहा. अखबार कम ही पढ़ता था, टीवी बिल्कुल नहीं देखा और इंटरनेट पर बस जरूरी ई-मेल करने और कभी-कभी फेसबुक में झांक लेने के अलावा कुछ खास नहीं कर पाया. लेकिन दिल्ली आते ही यहां बलात्कार का घिनौना मामला सुनने में आया और दिल दहल गया. फिर से जिंदगी महानगरीय हलचल से आक्रांत हो गई.
इसी हफ्ते सोमवार को जब वापस आने की तैयारी कर रहा था, सुबह-सुबह पुराने पत्रकार मित्र विजय शंकर (आज तक) का फोन आया. उन्होंने कहा, ”दैनिक जागरण के साहित्य वाले पेज पर गीतांजलि श्री की किताब ‘यहां हाथी रहते थे‘ के बारे में जानकारी छपी है, तुमने इस शीर्षक से कोई कविता लिखी थी, देख लो कहीं चोरी का कोई मामला तो नहीं है.“ असल में करीब एक दशक पहले मैं कविताएं लिखने में सक्रिय था और तब ऐसी ही मेरी दो कविताएं देश की शीर्ष साहित्यिक पत्रिका ‘हंस‘ में छपी थीं. इनके शीर्षक हैं-‘दिल्ली में हाथी रहते हैं‘ और ‘न लिखने का कारण‘. दोनों बहुत छोटी कविताएं थीं. उस दिनो मैं छोटे शहर, गांव से हाल में महानगर आया एक संवेदनशील युवक था और दिल्ली की गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले समाज में काफी असहज महसूस करता था. कई ऐसी बातें हुईं, जिससे मेरे मन में यह सवाल उठने लगा कि दिल्ली में इंसान रहते हैं या नहीं. तभी यमुना पुल पर एक बोर्ड दिख गया और इसी बोर्ड से मुझे कविता लिखने की प्रेरणा मिली.
खैर, दैनिक जागरण का वह पेज दिल्ली आने से पहले देख नहीं पाया और यहां भी ई-पेपर पर वह मिल सका. असल में गीतांजलि श्री की किताब एक कहानी संग्रह है और मैंने तो इससे मिलते-जुलते शीर्षक से एक कविता भर लिखी थी. वैसे भी मेरा यह मानना है कि शीर्षक की चोरी कोई चोरी नहीं होती, चोरी तो तब होती है जब कोई शीर्षक बदलकर पूरा कन्टेंट अपने नाम से छाप ले (जैसा कि मेरे एक पूर्व संपादक ने किया था, उन्होंने क्रिकेट पर लिखे मेरे एक आलेख की हेडिंग बदलकर पूरा मैटर वैसे ही रखते हुए अपने नाम से एक कम चलने वाली पत्रिका में छपवा ली थी). मैंने भी अपनी कविता के शीर्षक की प्रेरणा आइटीओ से लक्ष्मीनगर जाने वाली यमुना पुल पर लगे एक बोर्ड से ली थी. उन दिनों यमुना पुल के पास पुश्ते पर बहुत बड़ी झुग्गी बस्ती हुआ करती थी और वहां कई लोग हाथी पाले रहते थे. इन हाथियों को शादी आदि में किराए पर देने का बिजनेस था, जिसे प्रचारित करने के लिए ‘यहां हाथी रहते हैं‘ लिखे हुए कई बोर्ड दिख जाते थे.
आज जब दिल्ली में बलात्कार को लेकर यहां के पूरे समाज पर सवालिया निशान लग रहे हैं. ऐसे में मेरी यह कविता फिर से प्रासंगिक नजर आ रही है. अपने दोस्तों के लिए अपनी इस छोटी सी कविता को फिर से पेश कर रहा हूं.

दिल्ली में हाथी रहते हैं

यहाँ  हाथी रहते हैं‘,
यमुना पुल से गुजरते ही दिख जाता है बोर्ड।
यहां भालू रहते हैं, यहां बंदर रहते हैं,
ऐसा भी बोर्ड होगा कहीं दिल्ली में,
शायद चिडि़या घर के पास।
‘यहां इंसान रहते हैं‘,
ऐसा बोर्ड भी दिल्ली में कहीं है क्या?
आपको दिखे तो बताना...

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