मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

मेरे संसदीय क्षेत्र में ताजी हवा का झोंका आया है

मेरे जन्मभूमि वाले संसदीय क्षेत्र महाराजगंज, यूपी की राजनीति में ताजी हवा का झोंका आया है. इस बार दो ऐसी महिला प्रत्याशी आई हैं जिनसे मुझे इस बेहद पिछड़े संसदीय क्षेत्र के लिए कुछ उम्मीद की किरण नजर आती है. दोनों अपने पिता के राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने जा रही हैं. एक लखनऊ दिल्ली में पढ़ी, विदेश में रह चुकीं और एक बिजनेस चैनल की संपादक रहीं सुप्रिया श्रीनेत हैं, तो दूसरी इलाके के दबंग माने जाने वाले नेता अमर मणि त्रिपाठी की बेटी तनुश्री त्रिपाठी जो लंदन के एक प्रतिष्ठित काॅलेज से पढ़कर आई हैं.
 अपने कस्बे के युवा दोस्तों के साथ अक्सर जब हम राजनीतिक चर्चा करते तो यह बात सामने आती कि कोई बड़ा नेता या बेहतर कैंडिडेट हमारे इलाके को क्यों नहीं मिलता जो इस बेहद पिछड़े संसदीय क्षेत्र में विकास की गंगा बहाए, कुछ बदलाव करे. वही घिसे-पिटे नेता, जिनका किसी तरह का कोई जनांदोलन याद नहीं रहता. टिकट पाने के लिए सबसे बड़ी योग्यता यह है कि कौन कितना पैसा फेंक सकता है. एकाध बार तो हम यह भी सपना देखते कि मोदी, राहुल, प्रियंका जैसा कोई बड़ा नेता हमारे इलाके में आए जाए तो हमारे इलाके की तकदीर बदल जाए. खैर कोई दिग्गज नेता हमारे पिछड़े संसदीय क्षेत्र में तो नहीं आया, लेकिन कांग्रेस और राहुल ने जिस सुप्रिया श्रीनेत पर भरोसा जताया है और लंदन से पढ़कर लौटी अमर मणि की बेटी जिस तरह से इलाके की राजनीति में उतरी हैं, वह कम से कम ताजी हवा के झोंके जैसा ही है.
सुप्रिया के पिता हर्षवर्धन का नाम इलाके का बच्चा-बच्चा जानता है. मैं खुद बचपन में पहली बार जिस नेता से परिचित हुआ वह जनता दल के हर्षवर्धन ही थे. बचपन में जब उनके चुनाव प्रचार वाली जीप कस्बे में आती तो हम उसमें लटक लेते और उस प्रचार वाली जीप के साथ न जाने कौन-कौन से अनजान गांवों की सैर कर आते. हर्षवर्धन काफी हेल्दी और कद़दावर थे. वह कई बार फरेंदा विधानसभा से विधायक रहे और बाद में वह दो बार महाराजगंज से सांसद भी बने. दुखद यह रहा है कि उनका कम उम्र में ही निधन हो गया. इलाके में लोगों के बीच हर्षवर्धन की काफी इज्जत-सम्मान है और इसका लाभ तथा सहानुभूति सुप्रिया को मिल सकती है. लेकिन उन्हें काफी मेहनत करनी होगी और उसी तरह से गांव-गांव घूमना होगा, जिस तरह से हर्षवर्धन जी घूमा करते थे. सुप्रिया के लिए मेरा एक सुझाव है कि वे मीडिया और सोशल मीडिया के भरोसे ज्यादा न रहे और ज्यादा से ज्यादा गांवों में घर-घर पहुंचने की कोशिश करें. इसकी वजह यही है कि ऐसा कोई घर शायद ही होगा जहां लोग हर्षवर्धन को न जानते हों, तो उन्हें इस परिचय को अपने प्रति जनसमर्थन में बदलना होगा.
सुप्रिया प्रचार के मामले में बाकी सभी प्रत्याशियों से आगे निकल गई  हैं. मोटरसाइकिल रैली, कार्यकर्ता बैठक, जनसभा आदि फेसबुक के माध्यम से देखकर लगता है कि वे अभी से काफी मेहनत कर रही हैं, जबकि इलाके में चुनाव अंतिम दौर में है. दूसरी तरफ, सपा अभी अपने प्रत्याशी का नाम भी फाइनल नहीं कर पाई है. सपा के लिए कभी अखिलेश सिंह, तो कभी किसी कृष्णपाल सिंह और कभी गणेश शंकर पांडे का नाम सामने आ जाता है. तनुश्री के पास शिवपाल की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का टिकट है, लेकिन एक तो वह अभी अपनी शादी की तैयारियों में व्यस्त हैं, जो इसी महीने है और दूसरे, कांग्रेस के टिकट कट जाने के झटके से उबर नहीं पा रहीं. इसलिए उनका प्रचार अभियान भी पिछड़ता दिख रहा है. तनुश्री का प्लस पाॅइंट यह है कि उनके पिता भले जेल में हों, लेकिन उनका मार्गदर्शन उनके साथ है. उनके एक भाई विधायक हैं और इस तरह उन्हें परिवार का अच्छा सपोर्ट है. कम से कम दो विधानसभा में अमरमणि के काफी कमिटेड वोटर हैं, जिनका लाभ उनको मिलेगा. धन बल में भी वे सुप्रिया से काफी मजबूत लगती हैं.
बीजेपी कैंडिडेट पंकज चैधरी तेल के बड़े व्यापारी हैं,  उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है, उनके साथ मोदी-बीजेपी का नाम है और वह पिछला कई चुनाव जीतते भी रहे हैं. तो उन्हें फिलहाल सबसे मजबूत कैंडिडेट माना जा रहा है. 
एक तरह से यह अच्छी खबर है कि इन दबंग और कद्दावर राजनीतिक परिवारों की लड़कियां राजनीति में आ रही हैं. इसका फायदा यह है कि लड़कियां अपने पिताओं के उस विरासत को तो शायद ही आगे बढ़ाएंगी, जिन्हें दबंगई कहते हैं. लड़के अपने पिता की दबंगई को और विस्तार ही देते देखे जाते हैं. लेकिन कम से कम लड़कियों से हम यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि वे कुछ नया और कुछ बेहतर करेंगी. हालांकि हाल की कुछ घटनाओं से मेरी उम्मीद कुछ हिली है. असल में विरासत से राजनीति में आने वाली हर महिला शुरू में अपने परिवार, समाज के इशारे पर चलने वाली गूंगी गुड़िया जैसी लगती है, लेकिन बाद में राजनीति सीखने पर वह समाज को नेतृत्व देने लगती है, तो मैं भी इस मामले में फिलहाल सकारात्मक सोच के साथ उम्मीद से लबरेज हूं.
क्या होगा अगर दोनों में से कोई एक महिला जीती तो
एक पत्रकार होने, अपने संसदीय क्षेत्र से करीब 900 किमी दूर दिल्ली में रहने और अब दिल्ली का ही मतदाता होने की वजह से मैं वहां की राजनीति के लिए अपाॅलिटिकल जैसा ही व्यवहार करता हूं. यहां से मुझे लगता है कि सभी मेरे अपने हैं और मैं किसी की हार-जीत की बात क्यों करूं. लेकिन एक क्षण के लिए मैं बस कल्पना कर लेता हूं कि दोनों में से कोई एक महिला जीती तो क्या होगा? (इसके लिए बाकी कैंडिडेट मुझे माफ करेंगे). दोनों बेहद पढ़ी-लिखी अंग्रेजीदां महिलाएं हैं जिनके लिए मोदी, अमित शाह, राहुल या प्रियंका और तमाम मंत्रियों से मिलकर अपनी बात प्रभावी तरीके से अंग्रेजी-हिंदी में रखने और संसदीय क्षेत्र के लिए जायज मांगों को मनवाने में कभी कोई दिक्कत नहीं आने वाली है. वे संसद में भी इलाके की समस्याओं को प्रभावी तरीके से उठा पाएंगी. उनके महिला होने के नाते इस बेहद पिछडे़ इलाके में महिला सशक्तीकरण बढ़ेगा और अब तक लड़कियों को दमित रखने वाले परिवार भी उन्हें पढ़ाने के लिए प्रेरित होंगे, क्योंकि इस जिले में महिलाओं के मामले में अभी रोल माॅडल की बेहद कमी है. तमाम महिला ग्राम प्रधान, जिला पंचायत सदस्य और अन्य महिला नेत्रियां सांसद तक अपनी बात को निस्संकोच रख पाएंगी.
अगर दोनों हार गईं तो
इन लड़कियों की असली परीक्षा उनकी हार के बाद होगी. क्या जीत-हार के बाद महाराजगंज उनके लिए पिकनिक स्थल जैसा ही रहेगा? क्या हारने के बाद सुप्रिया अपनी टीवी की नौकरी में वापस चली जाएंगी या वाकई महाराजगंज के बेहद पिछड़े, गरीब लोगों के बीच रहकर उनके अधिकारों के लिए काम करेंगी? क्या जीत-हार के बाद लंदन रिटर्न तनुश्री दिल्ली-लखनऊ में ही डेरा डाल देंगी या महाराजगंज की जनता की सेवा में अपना समय लगाएंगी? क्या उनके राजनीति में आने से संसदीय इलाके की राजनीति का स्वरूप, नैरेटिव कुछ बदलेगा या उसी तरह से जनता धनबल, जाति, धर्म के नाम पर वोट करती रहेगी? अगर कुछ नहीं बदलता और वे उसी सामंती पुरुष सत्तात्मक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की कठपुतली बनी रहती हैं, तो फिर हमारे जैसे तमाम प्रवासियों, युवाओं, महिलाओं का इनको सपोर्ट करने का कोई मतलब नहीं बनता. आगे क्या होगा यह समय ही बताएगा?
यह इलाका चौंका सकता है
मैं नहीं जानता कि इन काॅन्वेंट एजुकेटेड लड़कियों ने अपने इलाके में बचपन के कितने साल गुजारे हैं, वे इलाके को कितना जानती हैं? लेकिन पूर्वांचल का भोजपुरिया सामंती संस्कृति वाला जिला उन्हें कई चौंकाने वाले वाकयों से रूबरू करा सकता है. इसलिए भी कि वे राजनीति जैसी पथरीली राह पर चल पड़ी है, जहां विरोधी की पूरी कुंडली खंगाल ली जाती है. सामंती संस्कृति अपने आप में एक तरह से महिला विरोधी होती है, इसलिए उनके लिए इस पुरुष प्रधान, फूहड़ सांस्कृतिक वाले परिवेश वाली राजनीति में आगे बढ़ना आसान नहीं होगा.

कोई टिप्पणी नहीं: